Monday 23 December 2013

जब विभा की ओस
धरती पे आई
ढूँढ रही थी ठिकाना
ख़ुद का
तभी हरी भरी दूबोँ ने
आगे बढ कर
पुकार लिया था
धीरे से उसको
रात भर मंडराते

इधर उधर

ओस न जाने

क्या सोच रही थी

शायद दूबोँ से
मुँह फेर रही थी
हुई सुबह तो
बन गई बूँद वो
और पाया ख़ुद को
दूबोँ पर

तभी सूरज की किरणेँ
हवाओँ से छन छन कर
उस पर मध्यम-मध्यम पड़ने लगी

अब ओस की बूँदेँ
चमक रही थी
चहक रही थी
ख़ुश थी
उस कुम्हलाए दूब से लिपट कर ।

¤¤¤¤¤ निशा चौधरी ।:-:-)

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