Wednesday 29 January 2014

जो लोग सीधे होते हैँ
वही बेबाकी से अपनी बात कह जाते हैँ
चाहे जान कर या अनजाने मेँ
तोहमतेँ लग जाया करतीँ हैँ कभी कभी
कभी हिम्मत से तो कभी भोलेपन से
कहते हैँ वो अपनी बात
रखते भी हैँ अपनी बात
वो लोग जो सीधे होतेँ हैँ
सामने होतेँ हैँ
पीछे से वार नहीँ करते
छुप कर ख़ार नहीँ खाते
वो लोग जो सीधे होते हैँ
चमक नहीँ खोते अपनी
दिलोँ पर राज करते हैँ
उनको बर्दाश्त करना
सबके लिए मुमकिन होता
ऐसे लोग दुनिया मेँ नहीँ होते
तो पता नहीँ दुनिया का क्या होता
सभी दूसरे से छिपा रहे होते
अपने चेहरे पे अजीब सा
मुखौटा बात बात पर
लगा रहे होते

शुक्र है कुछ लोग तो है जो सीधे हैँ......

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
वो तुम थे या मैँ थी

मैँने बारिश को नहीँ
बारिश ने मुझे चुन लिया
छलकती रही......
नयनोँ के आसमान से
सूरज.... वो सिन्दूरी वाला
धुल धुल कर गिरता रहा
ज़मीन पर
जो अक़्स गढ़ गया

वो तुम थे या मैँ थी

एक तैरता सा
समंदर रुक गया
ज़मीन पर
और ज़मीन तैर कर निकल गई
दूर..... कहीँ दूर
जहाँ सिर्फ और सिर्फ
रेगिस्तान ही नज़र आया
और पास जाने पर
मृगतृष्णा......
जो मन छल गया

वो तुम थे या मैँ थी

सर्द रातोँ की
सिहरती सी खुशबू
गुलाब की ठिठुरती पंखुड़ियाँ
गेँदे के मचलते पत्ते
कांपते रहे रात भर
चाँद सितारे बादल और बिजली
सब छिपते रहे
छिपाते रहे
खुद से खुद को
साथ कोई और भी था
जो छिपता रहा
छिपाता रहा

वो तुम थे या मैँ थी

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
तुम सिर्फ तस्वीर होते तो
मान लेती तुम्हारी बात
पर क्या करुँ
ज़िँदा इन्सान हो
क्या पता
कब मुकर जाओ.....

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
नहीँ आना था तो न आते
अमावस का बहाना क्योँ बनाया
चाँद मेरे......
पता है मुझको
इन सर्द रातोँ मेँ
तुम्हारा भी निकलना होता होगा मुश्किल
ख़ैर छोड़ो.....
मैँ भी कहाँ बैलकनी मेँ आई थी
हाँ पर झाँका ज़रुर था एक बार
कि सुना है
दिल से निकली आवाज़ दिल तक पहुँचती है.....

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
वो जो उजाले से बचता फिर रहा
रोशनी मेँ जिसका दम निकल रहा
वो एक अनोखा सा आदमी
फंसा है अंदर शायद कहीँ न कहीँ
विचरता सा अंधेर मेँ
उसका सूरज से या सुबह से
नाता नहीँ है कोई
वो सीमा को पहचानता है
फिर भी तोड़ता हर बार है
साफ़ साफ़ है नज़रोँ के सामने
फिर भी धुँधलाता हर बार है
डगमगा रहा जो लक्ष्य से
लड़खड़ाते पाँव जिसके पड़ते
ज़मीन पर तो
लड़खड़ाती सी उसे कहीँ
ज़मीन ही नज़र आ जाया
करती है
रुकने को तो हार ' मानता है
वो भी
वो जो अनोखा है
पर अन्जाना नहीँ
अस्तित्व मेँ छिपे उस आदमी
की पहचान जीवित है कहीँ न
कहीँ.......

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
बदलाव !!!

हम दबते रहेँ
वो दबाते रहेँ
हम आवाज़ उठाते हैँ
वो बयान देतेँ हैँ
अब तो लड़कियोँ से
बात करना भी है मुश्किल
सिर पे आँचल लिया तो कहा......
परचम क्योँ नहीँ बनाया
और परचम बनाया तो कहा
शर्मोँ लिहाज़ भूल चुकीँ है ये
हमारे जन्म पे खतरा मँडराया
तो डर गए कि कहीँ
ख़ुद का अस्तित्व खतरे मेँ न पड़ जाए
और जन्म लिया तो कहा....
बिटिया क्योँ घर आई
कहीँ पल गई दुलार से
कहीँ पली उलाहने से
मगर परेशानी दोनोँ की एक सी
बदतमीज़ नज़रेँ
अनचाहे र्स्पश
पीछे पड़े हर वक़्त
इशारे किए जिसने
उसे रोकने के बजाय
हिदायत मिली
नज़र बचा के चलो
देखो मत उस ओर
बस फिर से वही
गलती किसी और की
और सज़ा किसी और को मिली

फिर भी चली बार बार
गिरी बार बार तो
उठी भी बार बार
अपनी बात कहने को
खुद को स्थापित करने को

सहनशीलता का पाठ पढ़ाया
मगर भूल गए
कि
धरती भार सहती है
बोझ नहीँ
अन्याय नहीँ
पाप नहीँ
दुराचार नहीँ सहती

ज़रुरी है बदले विचार
सदियोँ से जो बहती आयी है
बदले वो बयार

हर सदा जो आह बनकर
दिल से है निकल रही
अब उस आह को भी होना होगा आग मेँ तैयार ।

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।

Tuesday 31 December 2013

उन अनकहे शब्दोँ का अंधकार
बहुत कुछ छिपाए हुए है
अपने गर्भ मेँ
उनका शोर गूँजता सा
हर ओर
जो शब्द नहीँ कहते
चुप्पी कह जाया करतीँ हैँ
जो दर्द नहीँ कहते
आह! कह जाया करतीँ हैँ
क्षणोँ के गिरह को खोल कर
उधेड़ कर
टुकड़े टुकड़े करना
वापस जोड़ कर
अक्षरोँ का कायदे से
पन्नोँ पर झिलमिलाना
कभी कभी शब्द जितना कहते हैँ
उससे भी ज़्यादा छिपा जातेँ हैँ एक अनकही ,
अबुझ सी
दीवार होती है
शब्दोँ की
शब्दोँ के बीच
न जाने कितने ही
शब्द श्रुतियाँ भटक रहेँ हैँ
उस अंधकार मेँ
ब्रह्माण्ड के अंधकार मेँ
यदि श्रव्य है तो बस
ध्वनि ओँकार की
जो परिवर्तित कर देती है
सन्नाटे को शोर मेँ
उस अंधकार का गूढ़ रहस्य
प्रतीत होता है वो
अत्यन्त भयावह है जो.........

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।