Wednesday, 29 January 2014

वो जो उजाले से बचता फिर रहा
रोशनी मेँ जिसका दम निकल रहा
वो एक अनोखा सा आदमी
फंसा है अंदर शायद कहीँ न कहीँ
विचरता सा अंधेर मेँ
उसका सूरज से या सुबह से
नाता नहीँ है कोई
वो सीमा को पहचानता है
फिर भी तोड़ता हर बार है
साफ़ साफ़ है नज़रोँ के सामने
फिर भी धुँधलाता हर बार है
डगमगा रहा जो लक्ष्य से
लड़खड़ाते पाँव जिसके पड़ते
ज़मीन पर तो
लड़खड़ाती सी उसे कहीँ
ज़मीन ही नज़र आ जाया
करती है
रुकने को तो हार ' मानता है
वो भी
वो जो अनोखा है
पर अन्जाना नहीँ
अस्तित्व मेँ छिपे उस आदमी
की पहचान जीवित है कहीँ न
कहीँ.......

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।

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