उस रूह को मिटाने का
सुकुन ही कुछ और था
जो मेरे अंदर थी
एक कील की तरह
चुभती थी ......
उसकी आँहेँ
वो आकाश के सिरे पर
जा कर टूट जाती थी
फिर
बिखरी हुई नीचे आती
समेटती ख़ुद को
मगर गाँठ सी बन गई थी
हर जुड़ाव पर
टूटे हुए टुकड़े चुभते बार बार
सिरहाने मेरे....... उस रूह की एक ज़ेरोक्स कॉपी आज भी पड़ी है........
॰॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
सुकुन ही कुछ और था
जो मेरे अंदर थी
एक कील की तरह
चुभती थी ......
उसकी आँहेँ
वो आकाश के सिरे पर
जा कर टूट जाती थी
फिर
बिखरी हुई नीचे आती
समेटती ख़ुद को
मगर गाँठ सी बन गई थी
हर जुड़ाव पर
टूटे हुए टुकड़े चुभते बार बार
सिरहाने मेरे....... उस रूह की एक ज़ेरोक्स कॉपी आज भी पड़ी है........
॰॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
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