Tuesday, 31 December 2013

उन अनकहे शब्दोँ का अंधकार
बहुत कुछ छिपाए हुए है
अपने गर्भ मेँ
उनका शोर गूँजता सा
हर ओर
जो शब्द नहीँ कहते
चुप्पी कह जाया करतीँ हैँ
जो दर्द नहीँ कहते
आह! कह जाया करतीँ हैँ
क्षणोँ के गिरह को खोल कर
उधेड़ कर
टुकड़े टुकड़े करना
वापस जोड़ कर
अक्षरोँ का कायदे से
पन्नोँ पर झिलमिलाना
कभी कभी शब्द जितना कहते हैँ
उससे भी ज़्यादा छिपा जातेँ हैँ एक अनकही ,
अबुझ सी
दीवार होती है
शब्दोँ की
शब्दोँ के बीच
न जाने कितने ही
शब्द श्रुतियाँ भटक रहेँ हैँ
उस अंधकार मेँ
ब्रह्माण्ड के अंधकार मेँ
यदि श्रव्य है तो बस
ध्वनि ओँकार की
जो परिवर्तित कर देती है
सन्नाटे को शोर मेँ
उस अंधकार का गूढ़ रहस्य
प्रतीत होता है वो
अत्यन्त भयावह है जो.........

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
इक ओर
निश्छलता
इक छोर
अभिनय
मिथ्या
मृगतृष्णा हो जैसे
तिरस्कृत भाव
अवहेलना हो जैसे
धिक्कार है
उस युग की
शिथिलता पर
उसके
अस्तित्व पर
जो रोक न सका
चुप चाप देखता रहा
उस आडंबर को

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
ये ज़िन्दगी अब भी कम पड़ती है
कम पड़ती हैँ साँसेँ कभी कभी

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
कभी जो ज़िंदा ख़्वाब हुआ करते थे
आज दफ़्न है किसी चौखट मेँ

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
तुम्हारे ही अक़्स से जन्मी थी
वो जो मेरी सूरत रुमानी थी

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
छिपाए नहीँ छिपते
मेरे होठोँ पर
उभरे हुए मुस्कान
जितनी चाहत है
मेरी चाहतोँ को
तुम्हारी
उतनी ही हिमाक़त है
इस दिल की
चाहने की तुझको
ख़्वाहिशेँ तब्दील होतीँ
उम्मीदोँ मेँ
रुकतीँ हर मोड़ पर
बिछी पलकेँ
सजातीँ चौखटेँ
निहारती खुद को
ऐतबार नहीँ होता
ये वक़्त भी आना था ।

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
कुछ टूटे शब्द
बिखर कर राहोँ मेँ
अपनी चुभन से
गहरा ज़ख़्म दिया करते हैँ ।

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
आजकल एक सपना बुन रही
उसे खरीदने की तुम्हारी औक़ात नहीँ
ऊन के हर फंदे मेँ
एक ख़्वाहिश है
हर गोला उम्मीदोँ का है
गर समझते तो पा लेते
पर समझने लायक तुम्हारे जज़्बात नहीँ
जो रंग चुना है
वो आशा और विश्वास का है
जो मेरे मन से उपजी
मेरे मन तक पहँची
तुम चुन पाते तो पा लेते
मगर तुम्हारी ऐसी क़ायनात नहीँ
तुम सपनोँ के अन्जाने से भंडार पे बैठे
ढ़ूँढ़ रहे हो केवल तन मेँ मुझको
मन मेँ ढ़ूँढ़ते तो पा लेते
मगर ऐसे तुम्हारे हालात नहीँ ।

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
तुम और मैँ

न तुम विश्वकोष के परिचायक हो
न मैँ परिज्ञान की देवी
तो इस पराभाव के आस्वादन को
न तुम झेलो , न मैँ झेलूँगी

तुम्हारे उस मिथ्य स्वभाव की
दृश्यवत्ता आह्लाद बनी थी
......तुम्हारे लिए
परन्तु मेरे तो भावोँ का
उन्मूलन ही था
अब प्रत्यक्ष मैँ तुम्हारे हूँ
तुम ही ले लो निर्णय
निष्पक्ष तुम्हारा
ये मैँ नहीँ
मेरे उस मृत भाव का क्रंदन है
जो उपहार तुम्हारा ही था
मेरे लिए
अब वापस लौट नहीँ सकती
उस तिरस्कृत युग मेँ
जो स्वप्न तो था परन्तु
मुझे मिला
सम्यक आडंबर की तरह
छल की पराकाष्ठा की तरह

तो लो अब मैँ भी
इस क्रंदन.... इस रुदन
को रोकती हूँ
स्वप्न को तोड़ती हूँ
आडंबर को भेदती हूँ
कभी जो करुणा का पर्याय बनी थी
दया की प्रतिमूर्ति थी
आज तुमसे मुख मोड़ती हूँ
हर बंधन को तोड़ती हूँ......... ।

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।

Monday, 23 December 2013

उकसाए पलोँ की मंद मंद बौछारेँ , सुनहरी सी हर बूँद , धरती से टकराकर , अविश्वसनीय इंद्रधनुष के रंगोँ मेँ बँटती हो जैसे । ------ निशा चौधरी ।
टूटते तारोँ की
सी चाँदनी ,
छिटक कर ,
मेरी अंजलि मेँ गिरतीँ हैँ ,
मैँ उछाल देती हूँ ,
उनको हवाओँ मेँ ,
वे चमक कर ,
तारे बन जाते हैँ ,
टिमटिमाते ,
इठलाते ,
दूर से इशारोँ मेँ
बाते करते हैँ वो मुझसे ,
झिलमिलाते हैँ ,
चमचमाते हैँ ,
हँसते हैँ ,
खिलखिलातेँ हैँ ,
हर रोज़ आकाश मेँ ,
वो उसी जगह मिलते हैँ ,
कभी मैँ उनका तो ,
कभी वो मेरा
इंतज़ार करतेँ हैँ ,

चाँद से भी प्यारे ,
मुझको हैँ वो तारे ,
जो दूसरोँ की नहीँ ,
ख़ुद की रौशनी से
चमकते हैँ ।

॰॰॰॰॰॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
एक अन्तर्द्वँद्व
अवचेतन मन
या चेतना
सहसा ये उज्जवल तरंग

चेतना की

पुष्प सी कोमलता
अज्ञानता का स्पर्श
ये कठोरता शिला की
अवगत होना सत्य से
वन मेँ विचरते
खग म् ग के जैसे
चेतना संग भ्रमता मन ।

॰॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
अन्जानी सी धरती पर
विरानी सी सजती
एक भव्य विराट उन्मेष
सौँधी सी ख़ुशबू पर
वारी न्यारी द्वेष
किसी वीरा या कुँवर की
सादा या भँवर

ज्योँ का ज्योँ रंग
भीगा स् जन उमंग
सागर सी लहराई
विह्वल हो सकुचाई

क्या संग क्या अंतरंग
विगत स्वभाव सौजन्य ही
चरमराई अनभिज्ञ सी
विविधता को समेटे
अंजलि की रेखाओँ ने
अभावोँ को सहेजा
अतिशय समय सीमाओँ ने

कहीँ अजब कहीँ विजय सी
शैल पाई दुर्लभ सी

निर्झर की चाह झरने की
श्रंगार भद्र वसन की
इच्छित वर वरन् दो कि
स्वागत हो शरणागत की

सौन्दर्य वैभव विभाजित
गुण दोष विवाहित

अहं सी समर्पित
व्यर्थ रोम रोम ,गुँजता सा
परहित का समावेश
व्यंजना ,पर अग्रिम
एक ही एकाग्रता को
जागती आँखोँ का स्वप्न

निर्मल आत्मा का विभोर
रागोँ का मिश्रित रुप
वैधव्यता की राई थी
पथरीली भी बंजर भी
विषयोँ का समंदर भी
एक ही बादल की बूँद
व्यथित ह्रदय सी गूँज

सीधे सादे आमरण का
वक्तव्य रुप हठीला
क्षणभंगुर -सा क्षण
अलंघ्य पर्वत की सीमा

विराना ही आवरण था उस
अन्जान सी धरातल पर ।

***** निशा चौधरी ।
जब विभा की ओस
धरती पे आई
ढूँढ रही थी ठिकाना
ख़ुद का
तभी हरी भरी दूबोँ ने
आगे बढ कर
पुकार लिया था
धीरे से उसको
रात भर मंडराते

इधर उधर

ओस न जाने

क्या सोच रही थी

शायद दूबोँ से
मुँह फेर रही थी
हुई सुबह तो
बन गई बूँद वो
और पाया ख़ुद को
दूबोँ पर

तभी सूरज की किरणेँ
हवाओँ से छन छन कर
उस पर मध्यम-मध्यम पड़ने लगी

अब ओस की बूँदेँ
चमक रही थी
चहक रही थी
ख़ुश थी
उस कुम्हलाए दूब से लिपट कर ।

¤¤¤¤¤ निशा चौधरी ।:-:-)
मैँ निस्तब्ध खड़ी..
अपने प्रतिबिम्ब को
तुममे निहारती रही
और तुम बहते ही चले गए
नदी की तरह
और मेरी परछाई
आज भी खड़ी वहीँ
इंतज़ार कर रही तुम्हारा
क़सूर तुम्हारा था.....
या मेरा
मुझको तालाब मंज़ूर नही था
और तुमको ठहरना
पर मैँ भी क्या करूँ
तुम्हारे साथ बह जाने
की मेरी प्रकृति नहीँ
और फिर....
तुम हो तो नदी ही
एक न एक दिन
वापस ज़रुर आओगे
किसी न किसी रुप मेँ
मैँ ढूँढ लूँगी तुम्हेँ
बारिश मेँ
तो कभी
समन्दर मेँ
देखो मगर....
सैलाब बन कर
मत आना
क्यूँ कि मुझको मंजूर नही
होगा तुम्हारा
किसी को भी
तकलीफ पहुँचाना

मैँ वृक्ष हूँ


और मेरा इतिहास
वर्षोँ का है
मेरा अस्तित्व भी
वर्षोँ से है
और तुम भी
अस्तित्व मेँ हो
मेरी ही वजह से
मैँ डगमगाई
तो तुम सैलाब
बन जाते हो
और उस वक्त तुम्हे
कोई नहीँ पूछता
मैँ संतुलित हूँ
तो तुम भी हो
और तभी तुम पूजे जाते हो
तो मेरी निस्तब्धता को
मेरी कमज़ोरी
मत समझना.....

¤¤¤¤¤ निशा चौधरी ।
ये सारा जहाँ सिमट कर
मेरी हथेली मेँ आ जाता
सुबह का सूरज
रात की चाँदनी
अनगिणत तारे
असीम आकाश
धरती की हरियाली
फूलोँ से सजती फुलवारी
ये निर्झर ये सागर
असंख्य इच्छाएँ
असीम प्रकाश
और तब मैँ धीरे धीरे
बंद कर लेती
अपनी मुट्ठी को
फिर मन ही मन
ख़ुश हो लेती
इस अनुभूति मेँ
तब जा कर
एहसास करा पाती
ख़ुद को
ख़ुद के होने का
और
तब ये वैशिष्टय
मेरी नहीँ
उस जहाँ की होती
जो मुझको
मेरे अस्तित्व से
मिलाने के लिए
धीरे से सिमट कर
मेरी हथेली मेँ आ जाता ।

¤¤¤¤¤निशा चौधरी ।
आसमान सिर पे लिए
घूम रहे हर वक़्त
संभाल कर रखा है
दोनो हाथोँ से
तारे भरे पड़े है न
कहीँ कोई तारा
छिटक गया तो....

¤¤¤¤ निशा चौधरी ।
उकसाए पलोँ की
मंद मंद बौछारेँ
सुनहरी सी हर बूंद
धरती से टकराकर
अविश्वसनीय इंद्रधनुष के रंगोँ
मेँ बँटती हो जैसे.....

¤¤¤ निशा चौधरी ।
__मैँ__

कभी ख़ाक.... तो कभी फूल
कभी शाख.... तो कभी शूल

क्या नज़र है तेरी
ऐ ख़ुदा
क्या क़रम है तेरा
रास्ते बनाता है
उस पे काँटे भी बिछाता है
फिर राह दिखाता है
मुश्किलेँ भी बढाता है
और गिराता है .....
संभालता है .....
मंज़िल तक भी पहुँचाता है
सवाल भी बनाता है
और ख़ुद ही
जवाब बनकर भी
आ जाता है
बस एक गुज़ारिश है

ऐ ख़ुदा ...!!!

चलना मेरे साथ
रुकना मेरे साथ
मैं गिरुँ तो संभलना
मुझमेँ.....मेरे साथ
मुझको...... मुझसे दूर न करना
मुझको...... मुझतक पहुँचाना

जब मैँ
ख़ुद तक पहुँच जाऊँ
तो समझ लेना कि
तुम तक पहुँच गई
और जब मैँ
तुम तक पहुँच जाऊँ
तो समझ लेना कि
ख़ुद तक पहुँच गई.......

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।

Monday, 16 December 2013

Meri kavitayen: उस रूह को मिटाने का सुकुन ही कुछ और था जो मेरे ...

Meri kavitayen: उस रूह को मिटाने का
सुकुन ही कुछ और था
जो मेरे ...
: उस रूह को मिटाने का सुकुन ही कुछ और था जो मेरे अंदर थी एक कील की तरह चुभती थी ...... उसकी आँहेँ वो आकाश के सिरे पर जा कर टूट जात...

Sunday, 15 December 2013

अब तो दिल

जुड़ा ही नहीँ है

तो तोड़ोगे कैसे ।:-(

॰॰॰॰॰ निशा चौधरी ।:-)
हे वर्षाजल ,
बूँद बूँद जब गिरती
नभ से
धराशायी होती ,तू धरा पे
संसृति सहज सजग अपनाता
तू अमृत जल , बरखा रानी
और उपाधि कितनी लेती
पर ये क्या तेरा विकराल रुप था

तोड़ दिया जीवन बाँधोँ को
मोड़ दिया जीवन लहरोँ को

हे वर्षाजल
माना नहीँ ये क्रिया तुम्हारी
ग़लती हम मानव की ही है
हमने तुझको नहीँ सहेजा
नहीँ संभाला
पर तू भी सोच

हे वर्षाजल
अन्याय नहीँ है , क्या ये
वो वर्ग जो भोगी
दुरुपयोग किया था , जिसने तेरा
सुख से है , अभी भी वो
भोग रहेँ हैँ , सुख को
और क़सूर नहीँ है
जिनका कोई
दुख़ से बोझ रहेँ हैँ ख़ुद को

तू शक्र से कहना
हान से कहना
योजना बनाए
बरसने की वहाँ
योजना बनती हर पल
मानव अस्तित्व छलने
की जहाँ

हे वर्षाजल ,संदेह नहीँ
कि संताप से बोझिल
वो वारिद दृग भी होँगे
पर अब जब भी तुम
वाष्प रुप मेँ
वापस पहुँचो अंबर मेँ
तब संदेश ये मेरा
दे देना उस स्रष्टा को
कि किसी और का किया
कोई और भरे
ये तैयार नहीँ
मैँ सहने को । ;-(

¤¤¤¤¤ निशा चौधरी _
स्वयं की प्रतीक्षा मेँ
आँखेँ जाग रहीँ रात भर
नीँद आती
पर बिना कुछ कहे
चली जाती
कभी कभी मेरे साथ
वो भी जगी रही
सहायक बनी रही मेरी
पूरी रात
शायद उसे भी
नीँद नहीँ आ रही
या शायद वो भी
उस क्षण को
खोना नहीँ चाहती
जिसमेँ मैँ स्वयं से मिलूँगी

सदियाँ बीत गई
मगर यह तथ्य ना बदला
कि '' मैँ '' को हमेशा
स्वयं की ही
तलाश होती है ।

¤¤¤¤ निशा चौधरी ।
मैँने मन को विचरते देखा था

उस उन्मुक्त गगन मेँ
न ही पाँव मेँ
रुढियोँ की बेड़ियाँ थीँ
और न ही रास्तोँ पे
रिवाज़ोँ के पहाड़ थे
और न ही मिली मुझे
विकृत मानसिकताओँ
की नदियाँ

थे तो बस
मेरे ही मन की तरह
उमड़ते घुमड़ते कई बादल
मेरे मन के साथ
उड़ान भरते कई पक्षी
मेरे मन की तरह
शीतल चाँद
मन की तरह चमकते सितारे
और मन की ही तरह
दहकता सूरज
बादलोँ ने मन को रोकने की कभी कोशिश नहीँ की थी
पंक्षियोँ ने
अपनोँ परोँ पर बैठा कर
न जाने कितना बड़ा
फ़ासला तय कर लिया था
मेरे मन के साथ

चाँद सितारोँ ने प्यार से
आलिँगन किया था
सूरज ने भी जलाने की
कोशिश नहीँ की थी
परन्तु उस आकाश मे भी
मेरा मन शांत नहीँ था

वो आकाश इतना सुन्दर
और ये धरती इतनी निर्मम
वो क्षण भर का आकाश
मेरी चाह नहीँ थी
वो आकाश वाली सारी बात
चाहिए मुझको
इस धरती पर....... ।

¤¤¤ निशा चौधरी ।
समर्पिता हूँ अर्पिता

भंगिमा से उपज कर
जो भाव तक न पहुँच सकी
कैसा है वो यत्न
व्यर्थ वो प्रयत्न
उछाह उस व्यथा का
चरम पर दिखता हो जैसे
अति ही है वो वेदना
मैँ करुणा
स्वाभाविक संवेदना से जुड़ कर
बंकिम उस मार्ग को
निहारती हूँ जैसे
उस अस्वाभाविक
व्यवहार से आहत
वो भयावह अवसान
उस भाव की

भव- भूति हो जैसे... ।

¤¤¤ निशा चौधरी ।
सिमटती ही गई....
अपने आप मेँ
हर वो बात बेबाक सी....

¤¤¤ निशा चौधरी ।
जो देख सकूँ मैँ सच को
तो सच को देखूँ तुम मेँ
तुम सच को देखो मुझ मेँ
तो मोहित होना क्षण मेँ

मिलना उस जीवन मेँ
जो पार है वैतरणी के
खिलना मधुर मुस्कान लिए

पारिजात की डंठल बन मैँ
तुझको नित निहारा करुँ
तुम्हारी मीठी सुगंध मेँ
ख़ुद को रोज बिसारा करुँ

जो पास हुए तो ढूंढूं कैसे
जो दूर हुए तो खोजूँ खुद मेँ

तुम शब्द बने जो अंतरमन के
मैँ लिख दूँ तुमको छंदोँ मेँ
जो देख सकूँ मैँ सच को
तो देखूँ तुमको जीवन मेँ ।

¤¤¤¤ निशा चौधरी
कहदे कोई इस पल को
गुज़रना न था
हर पल की तरह
साँसोँ को थमना न था
मुस्कान को ठहरना न था
ज़िन्दगी चलती रहे
हर इन्सान की तरह

ख़्वाहिशोँ का समंदर था
आसमान की तरह

घुँघरुओँ की झंकार थी
चूड़ियोँ की खनक थी
बिन्दी की चमक थी
ख़ुशबुओँ की बौछार थी
श्रंगार की तरह

सुलझी सी उलझन मेँ
उम्मीदोँ की बारिश थी
ख़्वाहिशोँ की तरह

आइना था असमंजस का
बौराए से फैसलोँ मेँ
दृढता थी
अजब सी सशक्त भाव थी
व्यवधान की तरह ।

¤¤¤ निशा चौधरी ।
कहदे कोई इस पल को
गुज़रना न था
हर पल की तरह
साँसोँ को थमना न था
मुस्कान को ठहरना न था
ज़िन्दगी चलती रहे
हर इन्सान की तरह

ख़्वाहिशोँ का समंदर था
आसमान की तरह

घुँघरुओँ की झंकार थी
चूड़ियोँ की खनक थी
बिन्दी की चमक थी
ख़ुशबुओँ की बौछार थी
श्रंगार की तरह

सुलझी सी उलझन मेँ
उम्मीदोँ की बारिश थी
ख़्वाहिशोँ की तरह

आइना था असमंजस का
बौराए से फैसलोँ मेँ
दृढता थी
अजब सी सशक्त भाव थी
व्यवधान की तरह ।

¤¤¤ निशा चौधरी ।
वो तार तार हुई
बार बार हुई
क्यूँ जीवन उसका
पहाड़ सा
क्यूँ उसपे इतने ज़ुल्म
जिसका वो शिकार हुई
वो बहन है ,
माँ है ,
बेटी है
किसी की
तो क्योँ
उसको डोली के बजाए
दहशत मिली
तो क्योँ
उसको इज़्ज़त के बजाए
नफ़रत मिली

हम सब ऋणी हैँ
दोषी हैँ
उस जान के
जो लुट गई
भरी बाज़ार है
वो दामिनी भी है
वो नन्ही सी बच्ची भी है
और
मुँबई की
फ़ोटोजर्निलिस्ट भी है


ये आग हम सब को अंदर ही अंदर जला रही है ।कि ये वारदातेँ शाँत क्योँ नहीँ हो रहीँ हैँ । क्योँ हर बार इतने सारे हंगामेँ के बाद चुप करा दिया जाता है बार बार हमेँ सांत्वना दे कर । कानून लाएंगे कौन सा कानून की सेक्स की उम्र कितनी होनी चाहिए! जो सरकार सेक्स और बलात्कार मेँ कोई अंतर नहीँ समझती वो क्या कोई कानून बनाएगी बलात्कार के विरुद्ध और क्या दोषियोँ को सज़ा देगी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का जोक तो सुना ही चुकी है हर बार , बार बार , कई बार


¤¤¤ निशा चौधरी ।
नभ मंडल शोभित तारिका से
अश्रु राग अश्रु ही लय थे
तब अश्रु सुर मेँ डूबी चंद्रिका थी
व्योम की छटा निराली थी
श्याम वारिद श्याम नभ
श्याम दृगोँ मेँ शोभायमान थे

स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी

गतिमान थी धरा धुरी पे जैसे
वैसे ही मन चंचल था
अधरोँ पर मुस्कान अति
और करोँ मेँ पुष्प विहंगम थे

स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी

सप्त तुरंग इंद्रियोँ के जैसे
वश मेँ नहीँ अब मेरे थे
अरण्य मन का घोर हुआ था
विहगोँ की किलकारी थी
तरणी बन तटिनी के तट पर
कैवल्य की चाह सुनहरी थी

स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी ।

¤¤¤ निशा चौधरी ।
सच है बिल्कुल
मान लिया है
कि अब तुम मेरे ,
जीवन मेँ नहीँ

पर ये भी क्या सत्य नहीँ
कि मैँ भी अब तुम्हारे जीवन मेँ नहीँ ?

तुमने भी खो दिया है , मुझको ?
मेरे जैसी तो
तुम्हे कोई और
मिल ही नही सकती
तो तुम भी सीख लो
मेरे बिना रहना
अपने नसीब पे रोना
अपने नसीब को कोसना
मेरे जीवन की करोड़ोँ खुशियाँ
पर तुम्हारे ऐसे नसीब कहाँ
कि मेरे खुशियोँ से जुड़ सको

शुक्रग़ुज़ार हूँ उन लम्होँ का
जिसमेँ तुम मुझसे दूर गए
दु:खद एहसास तो था
तुम्हारे जाने का
मगर अब खुश हूँ

क्योँकि.... शायद
मेरे नसीब अच्छे हैँ

¤¤¤ निशा चौधरी ।
स्वयं की प्रतीक्षा मेँ
आँखेँ जाग रहीँ रात भर
नीँद आती
पर बिना कुछ कहे
चली जाती
कभी कभी मेरे साथ
वो भी जगी रही
सहायक बनी रही मेरी
पूरी रात
शायद उसे भी
नीँद नहीँ आ रही
या शायद वो भी
उस क्षण को
खोना नहीँ चाहती
जिसमेँ मैँ स्वयं से मिलूँगी

सदियाँ बीत गई
मगर यह तथ्य ना बदला
कि '' मैँ '' को हमेशा
स्वयं की ही
तलाश होती है ।

¤¤¤¤ निशा चौधरी ।
नफ़रत
यूँ ही रहने दो
अपनी आँखोँ मेँ
इन्हेँ देखकर अच्छा लगता है
अच्छा लगता है कि
नफ़रत ही बन कर सही
आख़िर हूँ तो इनमेँ

¤¤ निशा चौधरी ।
ऐ ज़िन्दगी ,
माना कि तुम्हारे बिना साँसेँ नहीँ है धड़कन नहीँ है
फिर भी मगर मर कर भी अमर है कई ज़िन्दगी
तो हाथ छुड़ाने से पहले सोच लो कि
साथ निभाने मेँ फायदा तुम्हारा ही है ।

¤¤ निशा चौधरी ।
आकाश की गहराई
डूब जाती है
ख़ुद के ही
शून्य मेँ

चहलकदमी करती
उसकी सीमाएँ
स्थानांतरित होती हर बार

¤¤ निशा चौधरी ।
एक स्वच्छंद आसमान
खोता नहीँ......
पाता जाता है....
बहुत कुछ
उस खुली धरती की
फैली बाज़ुओँ मेँ
समाया ब्रह्माण्ड

आरंभ का प्रारंभ
अंत का अंत
सत्य का सत्य
और
मिथ्या का मिथ्य
सुख का सुख
और
दुख का दुख
सब वृक्ष की टहनियाँ
या अलंकार
संभव का संभव होना
या
असंभव का असंभव होना
ग्राह्य हर क्षण
है भी नहीँ भी
विद्रोही मन या संतोषी मन
द्वंद्व की धरा चीरते पग पग
झकझोरता धिक्कारता
सबलता या निर्बलता
भाव की पृष्ठभूमि
अभिव्यक्ति की भूमिका

बस प्रतिबंध नहीँ

॰॰॰॰॰ निशा चौधरी ।
उस रूह को मिटाने का
सुकुन ही कुछ और था
जो मेरे अंदर थी
एक कील की तरह
चुभती थी ......
उसकी आँहेँ

वो आकाश के सिरे पर
जा कर टूट जाती थी
फिर
बिखरी हुई नीचे आती
समेटती ख़ुद को
मगर गाँठ सी बन गई थी
हर जुड़ाव पर
टूटे हुए टुकड़े चुभते बार बार

सिरहाने मेरे....... उस रूह की एक ज़ेरोक्स कॉपी आज भी पड़ी है........

॰॰॰॰॰ निशा चौधरी ।