धरती पे आई ढूँढ रही थी ठिकाना ख़ुद का तभी हरी भरी दूबोँ ने आगे बढ कर पुकार लिया था धीरे से उसको रात भर मंडराते इधर उधर ओस न जाने क्या सोच रही थी शायद दूबोँ से मुँह फेर रही थी हुई सुबह तो बन गई बूँद वो और पाया ख़ुद को दूबोँ पर तभी सूरज की किरणेँ हवाओँ से छन छन कर उस पर मध्यम-मध्यम पड़ने लगी अब ओस की बूँदेँ चमक रही थी चहक रही थी ख़ुश थी उस कुम्हलाए दूब से लिपट कर । ¤¤¤¤¤ निशा चौधरी ।:-:-) |
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