नभ मंडल शोभित तारिका से
अश्रु राग अश्रु ही लय थे
तब अश्रु सुर मेँ डूबी चंद्रिका थी
व्योम की छटा निराली थी
श्याम वारिद श्याम नभ
श्याम दृगोँ मेँ शोभायमान थे
स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी
गतिमान थी धरा धुरी पे जैसे
वैसे ही मन चंचल था
अधरोँ पर मुस्कान अति
और करोँ मेँ पुष्प विहंगम थे
स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी
सप्त तुरंग इंद्रियोँ के जैसे
वश मेँ नहीँ अब मेरे थे
अरण्य मन का घोर हुआ था
विहगोँ की किलकारी थी
तरणी बन तटिनी के तट पर
कैवल्य की चाह सुनहरी थी
स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी ।
¤¤¤ निशा चौधरी ।
अश्रु राग अश्रु ही लय थे
तब अश्रु सुर मेँ डूबी चंद्रिका थी
व्योम की छटा निराली थी
श्याम वारिद श्याम नभ
श्याम दृगोँ मेँ शोभायमान थे
स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी
गतिमान थी धरा धुरी पे जैसे
वैसे ही मन चंचल था
अधरोँ पर मुस्कान अति
और करोँ मेँ पुष्प विहंगम थे
स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी
सप्त तुरंग इंद्रियोँ के जैसे
वश मेँ नहीँ अब मेरे थे
अरण्य मन का घोर हुआ था
विहगोँ की किलकारी थी
तरणी बन तटिनी के तट पर
कैवल्य की चाह सुनहरी थी
स्वप्न लोक मेँ डूबी फिर भी
स्वप्न संजोए तुम्हारी थी ।
¤¤¤ निशा चौधरी ।
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