अपने प्रतिबिम्ब को तुममे निहारती रही और तुम बहते ही चले गए नदी की तरह और मेरी परछाई आज भी खड़ी वहीँ इंतज़ार कर रही तुम्हारा क़सूर तुम्हारा था..... या मेरा मुझको तालाब मंज़ूर नही था और तुमको ठहरना पर मैँ भी क्या करूँ तुम्हारे साथ बह जाने की मेरी प्रकृति नहीँ और फिर.... तुम हो तो नदी ही एक न एक दिन वापस ज़रुर आओगे किसी न किसी रुप मेँ मैँ ढूँढ लूँगी तुम्हेँ बारिश मेँ तो कभी समन्दर मेँ देखो मगर.... सैलाब बन कर मत आना क्यूँ कि मुझको मंजूर नही होगा तुम्हारा किसी को भी तकलीफ पहुँचाना मैँ वृक्ष हूँ और मेरा इतिहास वर्षोँ का है मेरा अस्तित्व भी वर्षोँ से है और तुम भी अस्तित्व मेँ हो मेरी ही वजह से मैँ डगमगाई तो तुम सैलाब बन जाते हो और उस वक्त तुम्हे कोई नहीँ पूछता मैँ संतुलित हूँ तो तुम भी हो और तभी तुम पूजे जाते हो तो मेरी निस्तब्धता को मेरी कमज़ोरी मत समझना..... ¤¤¤¤¤ निशा चौधरी । |
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