Tuesday, 31 December 2013

उन अनकहे शब्दोँ का अंधकार
बहुत कुछ छिपाए हुए है
अपने गर्भ मेँ
उनका शोर गूँजता सा
हर ओर
जो शब्द नहीँ कहते
चुप्पी कह जाया करतीँ हैँ
जो दर्द नहीँ कहते
आह! कह जाया करतीँ हैँ
क्षणोँ के गिरह को खोल कर
उधेड़ कर
टुकड़े टुकड़े करना
वापस जोड़ कर
अक्षरोँ का कायदे से
पन्नोँ पर झिलमिलाना
कभी कभी शब्द जितना कहते हैँ
उससे भी ज़्यादा छिपा जातेँ हैँ एक अनकही ,
अबुझ सी
दीवार होती है
शब्दोँ की
शब्दोँ के बीच
न जाने कितने ही
शब्द श्रुतियाँ भटक रहेँ हैँ
उस अंधकार मेँ
ब्रह्माण्ड के अंधकार मेँ
यदि श्रव्य है तो बस
ध्वनि ओँकार की
जो परिवर्तित कर देती है
सन्नाटे को शोर मेँ
उस अंधकार का गूढ़ रहस्य
प्रतीत होता है वो
अत्यन्त भयावह है जो.........

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।

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