Sunday, 15 December 2013

मैँने मन को विचरते देखा था

उस उन्मुक्त गगन मेँ
न ही पाँव मेँ
रुढियोँ की बेड़ियाँ थीँ
और न ही रास्तोँ पे
रिवाज़ोँ के पहाड़ थे
और न ही मिली मुझे
विकृत मानसिकताओँ
की नदियाँ

थे तो बस
मेरे ही मन की तरह
उमड़ते घुमड़ते कई बादल
मेरे मन के साथ
उड़ान भरते कई पक्षी
मेरे मन की तरह
शीतल चाँद
मन की तरह चमकते सितारे
और मन की ही तरह
दहकता सूरज
बादलोँ ने मन को रोकने की कभी कोशिश नहीँ की थी
पंक्षियोँ ने
अपनोँ परोँ पर बैठा कर
न जाने कितना बड़ा
फ़ासला तय कर लिया था
मेरे मन के साथ

चाँद सितारोँ ने प्यार से
आलिँगन किया था
सूरज ने भी जलाने की
कोशिश नहीँ की थी
परन्तु उस आकाश मे भी
मेरा मन शांत नहीँ था

वो आकाश इतना सुन्दर
और ये धरती इतनी निर्मम
वो क्षण भर का आकाश
मेरी चाह नहीँ थी
वो आकाश वाली सारी बात
चाहिए मुझको
इस धरती पर....... ।

¤¤¤ निशा चौधरी ।

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