Tuesday, 31 December 2013

आजकल एक सपना बुन रही
उसे खरीदने की तुम्हारी औक़ात नहीँ
ऊन के हर फंदे मेँ
एक ख़्वाहिश है
हर गोला उम्मीदोँ का है
गर समझते तो पा लेते
पर समझने लायक तुम्हारे जज़्बात नहीँ
जो रंग चुना है
वो आशा और विश्वास का है
जो मेरे मन से उपजी
मेरे मन तक पहँची
तुम चुन पाते तो पा लेते
मगर तुम्हारी ऐसी क़ायनात नहीँ
तुम सपनोँ के अन्जाने से भंडार पे बैठे
ढ़ूँढ़ रहे हो केवल तन मेँ मुझको
मन मेँ ढ़ूँढ़ते तो पा लेते
मगर ऐसे तुम्हारे हालात नहीँ ।

॰॰॰॰ निशा चौधरी ।

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